टी.बी. क्या है व इसे रोकने के तरीके ! TB Tuberculosis Causes Symptoms Prevention In Hindi
TB Tuberculosis Causes Symptoms Prevention In Hindi
टी.बी. अर्थात् ट्यूबर्कुलोसिस जिसे संस्कृत में राजयक्ष्मा कहा जाता है जिसका एक अन्य नाम तपेदिक भी है। यह प्रायः मानव के श्वसन-तन्त्र को प्रभावित करता है एवं मायकोबैक्टीरियम ट्यूबर्कुलोसिस नामक एक जीवाणु से होता है।
तपेदिक संक्रामक होता है जिससे एक संक्रमित से अन्य असंक्रमित व्यक्तियों में फैल सकता है, वास्तव में तो इसके जीवाणु वायु में बिखरे रहते हैं किन्तु इसकी चपेट में कम ही लोग आते हैं।
अधिकांश लोगों का प्रतिरक्षा-तन्त्र इन जीवाणुओं को हावी नहीं होने देता। यहाँ फेफड़ों के तपेदिक को ध्यान में रखकर विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है क्योंकि 85 प्रतिशत मामलों में तपेदिक फेफड़ों में हुए पाये गये हैं। अन्य अंगों के तपेदिक एवं विशेष तपेदिक स्थितियों का उल्लेख अन्त में किया जायेगा।
मायकोबैक्टीरियम ट्यूबर्कुलोसिस – ये जीवाणु (बैक्टीरिया) धीमी गति से पनपते हैं, वायुजीवी हैं, अर्थात् इन्हें भी आक्सीजन आवश्यक होती है, अतः ये ऐसे अंगों में फलते-फूलते पाये जाते हैं जहाँ आक्सीजन-प्रवाह अधिक हो, जैसे कि वृक्क, फेफड़े व अस्थियाँ। ये दैहिक कोशिकाओं के भीतर बढ़ सकते हैं।
ये मनुष्यों सहित अन्य जन्तुओं के शरीर में परजीवी के रूप में रह लेते हैं, इसलिये भी Pasteurized Milk गाय-भैंस से निकालकर उबालकर पीये जाने वाले दूध की अपेक्षा बहुत सुरक्षित होता है।
रोगी के शरीर का Immune System यदि न रोक पाये अथवा किसी सीमा व अवधि तक रोके रखने के बाद अक्षम हो जाये तो यह जीवाणु अन्य अंगों में फैलता है एवं आरम्भिक व बाद में संक्रमित अंगों की कार्य-प्रणाली में व्यवधान लाने लगता है।
TB Tuberculosis Causes Symptoms Prevention In Hindi

तपेदिक के लक्षण व ख़तरे के सम्भावित संकेत
- बुखार
- रात में पसीना
- खाँसी (जो कि बनी रह सकती है)
- खखार (खाँसी के साथ मुख में आये तरल) में रक्त
- वजन घटना
- पेशियों में कमज़ोरी लगना
- थकान
- छाती में दर्द
तपेदिक के प्रकार
तपेदिक के वैसे तो कई प्रकार होते हैं परन्तु लक्षणों के सामने आने के आधार पर दो प्रमुख प्रकारों की चर्चा की जाती है.
1. सक्रिय तपेदिक संक्रमण – इसमें लक्षण स्पष्ट दिख रहे होते हैं एवं संक्रमण दूसरों में फैल जाता है।
2. प्रसुप्त तपेदिक संक्रमण – इसमें जीवाणु को व्यक्ति का प्रतिरक्षा-तन्त्र बेअसर-सा किया गया हुआ हो सकता है जिससे न तो लक्षण दिखते हैं, न ही खखार अथवा थूक में जीवाणु नज़र आता है।
इसमें अन्य व्यक्तियों में यह जीवाणु प्रायः नहीं फैलता। प्रसुप्त तपेदिक संक्रमण से ग्रसित व्यक्ति का प्रतिरक्षा-तन्त्र यदि निर्बल पड़ा तो यह संक्रमण दूसरों में भी फैल सकता है।
प्रसुप्त तपेदिक संक्रमण इस सन्दर्भ में चिकनपाक्स संक्रमण के समान है, ये दोनों संक्रमण प्रसुप्त रह सकते हैं एवं बरसों बाद सक्रिय रूप में सामने आ सकते हैं।
फेफड़ों के अतिरिक्त अन्य भागों के संक्रमण भी उपरोक्त दो प्रकारों के हो सकते हैं परन्तु दूसरों में संक्रमण फैलने की दृष्टि से फेफड़ों का तपेदिक अन्य तपेदिकों की अपेक्षा अधिक संक्रामक होता है क्योंकि साँसों से निकली वायु में इसके जीवाणु अधिक संख्या में सरलता से हो सकते हैं।
तपेदिक के परीक्षण
1. थूक अथवा खखार में अथवा बायोप्सी स्पेसिमेन्स में उपस्थित मायकोबैक्टीरिया के संवर्द्धन (कल्चर) की जाँच
2. रोगी के अतीत, शारीरिक परीक्षण, त्वचा-जाँच अथवा एक्स-रे द्वारा
तपेदिक के उपचार
Tb के रोग (TB) का उपचार दो कारकों पर निर्भर होता है. किस अंग में संक्रमण है उस पर And प्रसुप्त Or सक्रिय किस स्तर का रोग है इस पर।
तपेदिक मुक्त होने के लिये महीनों तक औषध-सेवन करना होता है इसलिये लापरवाही से रोकने के लिये भारत के ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्रों में रोगी को बुलाकर कर्मचारी की देखरेख में औषध-सेवन कराया जाता रहा है।
Tb का टीका उपलब्ध है परन्तु प्रभावशीलता मुद्दों व अन्य समस्याओं के कारण इसे लगवाने की सलाह नहीं दी जाती।
तपेदिक दूर करने वाली एक अथवा अनेक औषधियों का सेवन कराया जाता है। औषधि के सेवन अथवा चुनाव में असावधानी बरती तो रोगी एवं उसके सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर संकट छा सकता है।
औषध-प्रतिरोधी व प्रतिजैविक-प्रतिरोधी अथवा बहु-औषध-प्रतिरोधी तपेदिक का उपचार कठिन हो सकता है।
किसी भी तपेदिक के उपचार से निम्नांकित दुष्प्रभाव पड़ सकते हैं –
- भूख में कमी
- मितली एवं उल्टी
- पीलिया
- नेत्रज्योति में परिवर्तन
उपरोक्त दुष्प्रभाव होने पर चिकित्सक को सूचित करते रहें। कुछ रोगियों में फेफड़ों को गम्भीर क्षति हो सकती है एवं हो सकता है कि फुफ्फुस (फेफड़े) के रोगग्रस्त ऊतक को शल्यक्रिया की सहायता से निकलवा देना ही अन्तिम विकल्प बचे।
वैसे तपेदिक का घरेलु उपचार सम्भव नहीं होता फिर भी लक्षणों में राहत के लिये मुख्य चिकित्सा के साथ दूध, अनानास, आँवला इत्यादि को
आज़माया जा सकता है परन्तु प्रयोग से पूर्व इनके बारे में चिकित्सक से विचार-विमर्श कर लैवें।
समय रहते उपचार करा लिया जाये तो यह रोग सहज-साध्य है परन्तु थोड़ी-सी भी लापरवाही से जटिलताएँ बढ़ सकती हैं, जैसे कि फेफड़ों में कार्यों में क्षति, अस्थि-पीड़ा (पसली, रीढ़ व संधियों में कष्ट), वृक्क एवं यकृत की कार्यप्रणाली में विकृति एवं नेत्रज्योतिगत समस्या।
तपेदिक होने की आशंका किन्हें ?
वैसे तपेदिक सरलता से नहीं फैलता परन्तु फिर भी इन लोगों में आशंका हो सकती है –
1. साथ रहने अथवा काम करने वाले लोगों सहित होस्टल्स, रैन-बसेरा अथवा झुग्गी-बस्तियों अथवा भीड़भरे इलाकों में रहने व आवाजाही वाले क्षेत्रों में आने-जाने वाले लोगों में.
चिकित्सालयों में अथवा ऐसे स्थानों में जहाँ तपेदिक, एचआईवी अथवा अन्य संक्रमणों से ग्रसित अथवा दुर्बल प्रतिरक्षा तन्त्र वाले लोग हों, जैसे कि बंदीगृह, नर्सिंग होम, ड्रग-यूज़र्स अथवा अन्य से आपसी सम्पर्क में आने वाले लोग;
2. ऐसे क्षेत्रों से आये आगंतुक अथवा श्रमिक अथवा ऐसे क्षेत्रों से होकर आये व्यक्ति जहाँ तपेदिक के संक्रमण कुछ अधिक पाये गये हों –
*. सिर व गर्दन के कैन्सर के रोगी
*. कोई अंग-प्रत्यरोपण करा चुके रोगी
*. मधुमेहग्रस्त
*. वृक्क (ग़ुर्दा) रोग से ग्रसित व्यक्ति
*. सिलिकोसिस से ग्रसित व्यक्ति, यह फेफड़ारोग सिलिकायुक्त माहौल में कार्य अथवा निवास करने वाले व्यक्तियों व श्रमिकों में होने की प्रबल आशंका रहती है, जैसे कि रेतीले स्थान अथवा खदानों के आसपास का क्षेत्र।
तपेदिक के समय रखे ये सावधानियाँ
1. पर्याप्त जाँचों के बाद औषधि का चयन Doctor द्वारा ध्यान से किया जाये ताकि जिस औषधि के प्रति जीवाणु अधिक संवेदनषील हो उसी का प्रयोग करते हुए उसे यथाशीघ्र नष्ट किया जा सके.
2. रोग में सुधार लग रहा हो तो भी रोगी सम्बन्धित औषधि का सेवन पूर्वनिर्धारित पूरी अवधि तक बिना भूल-चूक किये सतर्कतापूर्वक करे, अन्यथा मल्टि-ड्रग रेसिस्टेन्स की स्थिति आ सकती है जिसमें कई औषधियाँ मिलकर भी इस जीवाणु को नष्ट नहीं कर पातीं।
अन्य अंगों के तपेदिक
1. कंकाली तपेदिक – इसमें कंकाल (स्कलेटन) में तपेदिक हो जाता है जिसमें रीढ़ में दर्द, पीठ में कड़ाई अनुभव होती है एवं पक्षाघात् सम्भव.
2. टी.बी. आथ्र्राइटिस – प्रायः किसी एक जोड़ में दर्द, जैसे कि नितम्बों व घुटनों में.
3. मूत्रोजनन तपेदिक – मूत्रोत्सर्ग के दौरान जलन इत्यादि.
4. जठरान्त्रीय तपेदिक – निगलने में कठिनाई, पेट के घाव न भर पाना व व्रण (अल्सर) बन जाना, पेटदर्द, पोषक ठीक से अवशोषित न हो पाना, दस्त (रक्तयुक्त सम्भव).
5. अन्तिम चरण का तपेदिक – बुखार सम्भव, लगातार खाँसी, साँस लेने में कठिनता, वजन घटना, मानसिक परिवर्तन, मरण से पहले थूक में रुधिर आना
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