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चर्म रोग रोग के प्रकार व उपचार Skin Disorders Symptoms Disease In Hindi
Skin Disorders Symptoms Disease In Hindi
त्वचारोग को परिभाषित कर पाना कठिन है क्योंकि त्वचा-विकार किसे कहें यह समझ पाना तक सरल नहीं है. त्वचा की संरचना, रूपरंग अथवा कार्यप्रणाली में कोई असामान्य परिवर्तन आ जाने को त्वचारोग कह दिया जाता है, यह संरचनात्मक व क्रियात्मक विकृति लक्षणों व गम्भीरता अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकती है।
स्थायी व अस्थायी एवं पीड़ारहित अथवा पीड़ापूर्ण त्वचारोग हो सकते हैं। कारणों में कुछ कारण परिस्थितिजनित व कुछ आनुवंशिक हो सकते हैं। अधिकांश त्वचारोग गम्भीर नहीं होते परन्तु कुछ तो प्राणघातक सिद्ध हो सकते हैं. ऐसा सम्भव है कि त्वचरोग किसी गम्भीर आन्तरिक समस्या के लक्षणमात्र हों।
मेरी त्वचा अजीब-सी दिख रही ” अथवा ” लोग क्या सोचेंगे ” जैसी सोच के वशीभूत होकर उपचारादि के प्रयास न करें। कुछ त्वचारोगों के नाम व लक्षण नीचे स्पष्ट किये गये हैं (किन्तु अनेक रोगों के लक्षणों में समानता हो सकती है व ये किसी भी आयुवर्ग में हो सकते हैं.
Skin Disorders Symptoms Disease In Hindi

1. एक्ने – चेहरे, गर्दन, कँधे, छाती अथवा ऊपरी पीठ पर त्वचा में बिखराव, काले धब्बे, सफेद निषान, पिम्पल्स, गहरी गाँठिल सूजन, उपचार न किया गया तो निशान बने रह सकते हैं अथवा कालापन जम सकता है.
2. कोल्ड सोर – मुख व ओष्ठों पर अथवा आसपास लाल, कष्टपूर्ण, तरल भरे फफोले, छाले दिखने पर प्रभावित भाग में झुनझुनी अथवा जलन सम्भव, साथ में हल्का बुखार, बदनदर्द इत्यादि सम्भव.
3. ब्लिस्टर – शरीर के किसी भी भाग में 1 सेण्टीमीटर अथवा अल्प-अधिक आकार में पानी भरा व स्पष्ट क्षेत्र जो अकेले अथवा समूह में विकसित हो आया हो.
4. हाइव्स – किसी एलर्जेन से प्रतिक्रियास्वरूप उभर आयी एक खुजली पूर्ण धारी जो देखने में लाल, छूने में गर्म व कुछ दर्दपूर्ण हो, छोटी, गोल अथवा वृत्तीय घेरे अथवा बड़ी किसी भी आकृति व आकार में हो सकती है.
5. एक्टिनिक किरेटासिस – आमतौर पर धूप में अधिक रहने वाले अंगों (हाथ, चेहरा, खोपड़ी, गर्दन) पर दो सेण्टीमीटर्स से कम अथवा पेन्सिल-इरेज़र के बराबर, मोटा, शल्की अथवा पपड़ी जैसा स्थान जो प्रायः गुलाबी दिखता है अथवा भूरा, पीला-भूरा अथवा धूसर जैसा भी सम्भव; ध्यान रहे कि विटामिन-डी इत्यादि हेतु पर्याप्त धूप भी आवश्यक है।
6. रोज़ेसिया – लम्बे समय का एक त्वचारोग बारम्बार धीमा पड़ता व पुनः आता रहता है, इसका पुनरागमन मसालेदार खाद्यों, मद्य, धूप, तनाव एवं आन्त्रीय जीवाणु हेलिकोबॅक्टर पायलारी से प्रेरित हो सकता है, चेहरा लाल पड़ने, त्वचा में सूखापन, ददोड़े पड़ना सम्भव.
7. कार्बन्कल – त्वचा के नीचे लाल, दर्दभरा पिण्ड जिसके साथ बुखार, देह में शूलचुभन व थकान अथवा त्वचा में पपड़ी बनना या फिर रिसाव सम्भव.
8. एग्ज़िमा – पीली अथवा सफेद शल्की सतह बनकर झड़ना, प्रभावित भाग का लाल, खुजलीयुक्त, ग्रीसी अथवा तैलीय होना सम्भव, चकत्ते आने के साथ उस भाग के बाल झड़ सकते हैं.
9. सोरायसिस – शल्की, चाँदी जैसे रंग के सुस्पष्ट सीमांकन वाले निशान जो प्रायः खोपड़ी, घुटनों, कुहनी अथवा कमर पर दिख सकते हैं जो कि खुजलीयुक्त अथवा लक्षणविहीन हो सकते हैं.
10. मीज़ल्स – बुखार, ख़राब गला, लाल व पानी भरे नेत्र, भूख में कमी, खाँसी, बहती नाक; चेहरे के लाल चकत्ते प्रथम लक्षण दिखने के 3 से 5 दिन बाद नीचे शरीर में फैलना, मुख के भीतर छोटे-छोटे लाल धब्बे जिनका केन्द्र श्वेत-नीला दिख रहा हो.
11. लॅटेक्स एलर्जी – लेटेक्स उत्पाद के प्रयोग के कुछ मिनट्स अथवा घण्टों बाद प्रभावित अंग पर चकत्ते आना, गर्म, खुजलीयुक्त लाल धारियाँ, सूखापन अथवा पपड़ी बनने जैसा रूप, वायु से फैलने वाले लॅटेक्स कणों से खाँसी, नाक बहना, छींक एवं नेत्रों में खुजली व पानी गम्भीर स्थिति में सूजन व कठिन साँसें.
12. सेल्युलाइटिस – त्वचा में दरार (जैसे कि घाव चोट अथवा फटी बिवाइयों से) के माध्यम से घुस आये जीवाणुओं अथवा कवकों (फफूँद) द्वारा लाल, दर्दयुक्त सूजी त्वचा जिसमें तेजी से फैलने वाला रिसाव हो सकता है व नहीं भी, छूने में गर्म व नरम, बुखार, ठण्डी अथवा चकत्ते से लाल रेखांकन बनना गम्भीर संक्रमण का संकेत हो सकता है.
13. बेसल सेल कार्सिनोमा – उभरे, सख़्त व हल्के पीले-से क्षेत्र जो क्षतिग्रस्त ऊतकों के निशान जैसे दिख सकते हैं, गुम्बद जैसे, गुलाबी अथवा लाल, चमकीले व मोती जैसे क्षेत्र गर्त में धँसे हुए-से लग सकते हैं.
स्थिति आगे बढ़ने पर रुधिर-वाहिनियाँ नज़र आ सकती हैं, सरलता से ख़ून निकल आने अथवा रिस आने वाले घाव जो ठीक होने वाले नहीं लगते अथवा ग़ायब होकर वापस आ जाते हैं.
14. स्क्वेमस सेल कार्सिनोमा- पराबैंगनी विकिरण के सम्पर्क में आये भागों (जैसे चेहरा, कान, हथेलियों का पिछला भाग) पर प्रायः दिखता है जिसमें त्वचा में लालिमायुक्त शल्क बन जाते हैं, उभार बनता जाता है; इस बढ़त में सरलता से रक्त आने लगता है व स्थिति ठीक नहीं होती अथवा ठीक होकर स्थिति वापस लौट आती है.
15. मेलानोमा – यह त्वचा-कैन्सर का एक अतिगम्भीर रूप है जो गौरवर्ण की त्वचा वाले लोगों में अधिक पाया जाता है; इसमें शरीर में कहीं भी तिल पड़ जाता है जिसकी आकृति में किनारे अनियमित दिखते हैं, आकृति असममित होती है एवं रंग अनेक होते हैं, तिल रंग बदलता है अथवा समय के साथ बड़ा हो जाता है.
16. ल्युपस – थकान, सिरदर्द, बुखार, सूजनयुक्त अथवा दर्दभरी संधियाँ (जोड़), शल्की, चक्री आकृति के चकत्ते जो खुजली अथवा दर्द से रहित लगते हैं, शल्की लाल दाने अथवा वलय-आकृतियाँ कँधों, गर्दन इत्यादि पर अधिक देखी गयी हैं जो धूप में और बिगड़ जाती हैं.
गर्म, लाल चकत्ते जो गालों में फैले होते हैं एवं नाक की ओर सेतु (पुल)-सा बना लेते हैं मानो तितली के पंख हों तथा धूप में स्थिति ख़राब हो जाती है.
17. काण्टेक्ट डर्मेटाइटिस – एलर्जेन के सम्पर्क में आने के घण्टों अथवा दिनों बाद स्पष्ट सीमाओं वाले चकत्ते जो तब दिखायी देते हैं जब त्वचा उस विक्षोभक (इर्रिटेटिंग) पदार्थ से स्पर्ष हुई हो; खुजली, लालिमा व शल्की कलेवर, बहने अथवा पपड़ी बन जाने वाले फफोले.
18. विटिलिगो – त्वचा को अपना रंग जिन कोशिकाओं से मिलता है आटोइम्यून डिस्ट्रशन (AutoImmune Distraction) के कारण त्वचा में वर्णक का ग़ायब होना, संकेन्द्रित प्रारूप के क्षेत्र अथवा त्वचा का सहज रंग छोटे-छोटे कुछ क्षेत्रों में ही खोता है जो मिलकर एक हो जाते हैं.
खण्डित प्रारूप भी सम्भव जिसमें शरीर के एक पाष्र्व में विवर्णकीकरण (रंग मिटना) होता है, खोपड़ी एवं चेहरे के बालों का समय से पहले धूसर पड़ना.
19. मस्सा – ह्यूमन पॅपिलोमा वायरस (HPV) नामक एक विषाणु के कई प्रकारों से यह होता है, त्वचा पर अथवा श्लेष्म झिल्लियों पर पाया जा सकता है, एकल अथवा समूहों में, संक्रामक व दूसरों में फैलना भी सम्भव.
20. चिकनपाक्स – ठीक होने की विभिन्न अवस्थाओं में पूरे शरीर पर खुजलीयुक्त, लाल व तरलभरे फफोलों के गुच्छे, चकत्तों के साथ बुखार, बदन-दर्द, गले में सूजन एवं भूख कम लगना, समस्त फफोले पपड़ी बनकर निकल जाने तक संक्रामक बने रहते हैं.
21. सेबोर्हेइक एग्ज़िमा – पीले अथवा श्वेत शल्की दाने जो झड़ जाते हैं, प्रभावित क्षेत्र लाल, खुजलीयुक्त, ग्रीसी अथवा तैलीय लग सकते हैं, क्षेत्र में चकत्ते के साथ बालों का झड़ना सम्भव.
22. किरेटोसिस पाइलेरिस – भुजाओं व पैरों में अधिक, चेहरे, नितम्ब व पेट पर भी सम्भव, 30 वर्षायु तक अपने आप हटना सम्भव, त्वचा का प्रभावित भाग ऊबड़-खाबड़, कुछ लाल-सा एवं खुरदुरा अनुभव हो सकता है. शुष्क मौसम में बिगड़ना सम्भव.
23. रिंगवार्म – वर्तुल (वृत्ताकृतिक) शल्की चकत्ते जिनकी सीमाएँ उभरी लगें, वलय के मध्य की त्वचा स्पष्ट व स्वस्थ नज़र आती है, वलय के किनारे बाहर की ओर फैल सकते हैं, खुजलीयुक्त.
24. मेलाज़्मा – चेहरे (कभी-कभी गर्दन, सीने अथवा बाहुओं पर भी) पर गहरे रंग के निशान, गर्भवतियों में कोलेज़्मा के रूप में एवं साँवली त्वचा व धूप में अधिक रहने वाले लोगो में अधिक, त्वचा का रंग हटने के अतिरिक्त अन्य लक्षण नहीं, एक साल में अपने आप गायब हो सकते अथवा स्थायी हो सकते.
25. इम्पेटिगो – शिशुओं व बच्चों में अधिक, मुख, ठुड्डी चिबुक व नासिका के आसपास चकत्ते, विक्षोभकारी चकत्ते व तरलपूरित फफोले जो सरलता से फट पड़ते हैं एवं पीली-सी पपड़ी बन जाती है।
त्वचारोग के वर्गीकरण –
अस्थायी त्वचा-विकार – काण्टेक्ट डर्मेटाइटिस, किरोटोसिस पिलेरिस
स्थायी त्वचा-विकार – रोज़ेसिया, सोरायसिस, विटिलिगो
बाल्यावस्था के त्वचा-विकार – एग्ज़िमा, डायपर रेश, सेबोर्हइक डर्मेटाइटिस, चिकनपाक्स, मीज़ल्स, मस्से, एक्ने, हाइव्स, रिंगवार्म
त्वचा रोगों के कारण –
*. त्वचा-छिद्रों व रोमकूपों में फँस गये जीवाणु
*. त्वचा पर रह रहे कवक (फफूँद), परजीवी अथवा किसी अन्य प्रकार के सूक्ष्मजीव
*. विषाणु
*. दुर्बल प्रतिरक्षा-तन्त्र
*. एलर्जेन्स, विक्षोभक (इर्रिटेण्ट्स) अथवा संक्रमित त्वचा वाले व्यक्ति का स्पर्ष/सम्पर्क
*. आनुवंषिक कारक
*. थायराएड, प्रतिरक्षा-तन्त्र, वृक्क (किड्नी) व अन्य दैहिक तन्त्रों को प्रभावित करने वाली रुग्णता
*. अनेक स्वास्थ्य-समस्याएँ व जीवनषैली-सम्बन्धी कारकों से भी किन्हीं त्वचागत विकारों का आगमन हो सकता है। कुछ त्वचात्मक विकृतियों के कारण ज्ञात नहीं हो पाते।
*. इन्फ़्लेमेटरी बावेल डिसीस – यह कई आन्त्रीय रोगों का एक समूह है जिसमें पाचन-पथ की सूजन बनी रहती है। इन रोगों के उपचार में प्रयोग की गयी औषधियों से त्वचा सम्बन्धी व्याधियाँ पनप सकती हैं, जैसे कि स्किन टॅग्स, एनल फ़िषर्स, स्टोमेटाइटिस, वेस्क्युलाइटिस, विटिलिगो, एलर्जिक एग्ज़िमा।
*. मधुमेह – मधुमेहग्रस्त के जीवन के किसी पड़ाव में त्वचारोगों की आषंका बढ़ जाती है, कुछ त्वचा रोग तो मधुमेह रोगियों को विशेष रूप से हो जाते हैं क्योंकि मधुमेह (Diabetes) में संक्रमण व रुधिर-परिसंचरण समस्याओं के जोख़िम भी बढ़ जाते हैं, डायबेटिक ब्लिस्टर्स, डायबेटिक स्क्लेरोसिस इत्यादि मधुमेह सम्बन्धी मुख्य त्वचारोग कहलाते हैं।
*. गर्भावस्था – स्ट्रेच मार्क, मेलाज़्मा व एग्ज़िमा गर्भावधि में होने की सम्भावना अधिक रहती है।
*. तनाव – तनावजनिक हाॅर्मोनल असंतुलन से त्वचाविकार बढ़ अथवा उभर सकते हैं, जैसे कि सोरायसिस, एक्ने, रोसेसिया, विटिलिगो, हाइव्स, सेबोर्हॅइक डर्मेटाइटिस
*. तेज धूप में अधिक रहना – झुर्रियाँ, स्किन-कैन्सर (बेसल सेल कार्सिनोमा, स्क्वेमस सेल कार्सिनोमा सहित), Sun Burn इत्यादि।
त्वचारोग के लिए जाँचें –
एलर्जीज़ परखने के लिये पॅच टेस्टिंग, त्वचा के कैन्सर को परखने के लिये स्किन-बायोप्सी.. सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति को पहचानने के लिये कल्चर-टेस्ट।
त्वचा-विकारों का उपचार –
यदि समय पर सटीक उपचार करवा लिया जाये तो कई त्वचा-रोगों को दूर किया जा सकता है, त्वचारोग विशेषज्ञ के कहने पर निम्नांकित उपचार कराये जा सकते हैं..
1. एण्टिहिस्टेमाइन्स
2. मेडिकेटेड क्रीम्स व आइन्मेण्ट्स
3. प्रतिजैविक
4. Vitamin अथवा अन्य इंजेक्शन
5. लेज़र थिरेपी
6. आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रकार की शल्यक्रियाएँ
स्मरण रखें कि चिकित्सक द्वारा लिखित रूप से बोले जाने पर ही एवं निर्धारित मात्रा व अवधि में ही औषधादि का प्रयोग करना है, अन्यथा हो सकता है कि सरलता से ठीक हो सकने वाला त्वचारोग अपनी जड़ जमा ले अथवा अन्य कोई आन्तरिक विकार उत्पन्न हो जाये।
त्वचारोग का घरेलु उपचार –
1. किसी त्वचासंक्रमण की शुरुवात लगे अथवा त्वचारोग नया-नया-सा लग रहा हो तो लहसुन को दुचलकर प्रभावित भाग पर लगायें।
2. ऐसे हर्बल साबुन व शैम्पू अपनायें जिनमें नीम, हल्दी जैसे एण्टिसेप्टिक गुणधर्मयुक्त शाक-पौधे हों। यदि स्वास्थ्यगत सम्बन्ध न हो तो त्वचारोग विकृतियों का उपचार करने की आवश्यकता नहीं है.
सौन्दर्यात्मक कारणों से जबरन इलाज की ज़िद न करें, चिकित्सक से पूछकर मेडिकेटेड मेक-अप, स्किनकेयर उत्पाद इत्यादि अपनाये जा सकते हैं।
त्वचा-विकारों से बचाव आनुवंशिक अथवा अन्य रुग्णताओं अथवा विशिष्ट स्थितियों के कारण होने वाले कुछ त्वचा-विकारों से बचना चाहे सम्भव न हो परन्तु कुछ (विषेष रूप से संक्रामक) से तो बचने के प्रयास अवश्य किये जा सकते हैं.
3. साबुन-पानी में हाथ नियमित रूप से धोने को आदत बनायें;
4. संदिग्धों अथवा संक्रमितों के द्वारा उपयोग किये गये तौलिये, बर्तन इत्यादि का प्रयोग यथासम्भव न करें।
5. सार्वजनिक स्थानों की वस्तुओं का प्रयोग करने से पूर्व उन्हें साफ कर लें एवं प्रयोगोपरान्त अपने हाथ भी अलग से साफ़ करें।
6. जीन्स पैण्ट न पहनें, जीन्स पैण्ट से होती हानियाँ आलेख पढ़ा जा सकता है।
7. पानी प्रचुर मात्रा में पीते रहें।
8. शारीरिक श्रम अथवा मानसिक तनाव में अति न होने दें।
9. संतुलित आहार का सेवन करें जिसमें कृत्रिम पदार्थ कम हों एवं स्थानीय विविधता पर्याप्त हो।
10. यदि किसी संक्रामक त्वचारोग अथवा त्वचा को प्रभावित कर सकने वाले संक्रामक रोग का टीका उपलब्ध हो तो उसे लगवाया जा सकता है, जैसे कि चिकनपाक्स (Chickenpox) का टीका।
11. वायु व जल आदि के प्रदूषक तत्त्वों से दूर रहें, घर व कार्यालय के परिसर में बड़े पत्तों वाले घने पेड़ लगायें व लताकुँज का निर्माण करें। सड़कादि यात्राओं में भी मास्क पहनें।
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