अस्थि (हड्डी ) रोग के कारण व उपचार Bone Disease Causes Treatment In Hindi
Bone Disease Causes Treatment In Hindi
बच्चे भी जानते हैं कि मानव-शरीर में 206 अस्थियाँ होती हैं परन्तु उनकी समस्याओं की अनदेखी बड़े-बड़े आसानी से आजीवन करते रहते हैं। अस्थियाँ भले ही बाहर से नहीं दिखतीं परन्तु ये शरीर के मूल ढाँचे को बनाती हैं।
शारीरिक ऊँचाई वाली अस्थियाँ भले ही किशोरावस्था के बाद बढ़नी रुक जाती हों परन्तु समस्त अस्थियों का निर्माण-पुनर्निर्माण हमेशा चलने वाली एक जैविक प्रक्रिया है। एक अस्थि-ऊतक के ख़राब अथवा पुराने हो जाने पर दूसरा नवनिर्मित अस्थि-ऊतक उसका स्थान ले लेता है।
जैसे कि युवावस्था में विशेष रूप से 25 से 30 वर्षायु में) अस्थि-घनत्व साधारणतया सर्वाधिक रहता है। तदुपरान्त अस्थियों का घनत्व धीरे-धीरे घटता जाता है किन्तु विटामिन्स व खनिजों की संतुलित मात्राओं को नैसर्गिक रूप से सेवन किया जाये एवं प्राकृतिक शारीरिक सक्रियताएँ बनाये रखी जायें तो इस समस्या से थोड़ी-बहुत राहत सम्भव है। आजकल तो किशोरावस्था व बच्चों में कई कई अस्थिरोग सामने आ रहे हैं, आइए ज़रा विश्लेषण करें.
Bone Disease Causes Treatment In Hindi

1. अस्थिमृदुता (ओस्टियोमैलेषिया) – इसमें अस्थियाँ कोमल व कमज़ोर हो जाती हैं। ये आसानी से मुड़ व टूट सकती हैं। विटामिन -डी की कमी मुख्य कारण है। इसके जैसी स्थिति रिकेट्स के रूप में बच्चों में स्पष्ट दिख जाती है। अस्थिमृदुता में अस्थियों में दर्द व पेशीय दौर्बल्य के लक्षण दिखते हैं।
2. अस्थिछिद्रण (ओस्टियोपोरोसिस – इसमें कम घनत्व का आशय यह होता है कि हड्डियाँ भंगुर (आसानी से टूट सकने वाली) हो गयीं हैं। स्त्रियों में यह और अधिक पायी जाने वाली समस्या है एवं बच्चे भी इससे ग्रसित हो सकते हैं। सम्भव है कि इसके लक्षण न दिखें किन्तु अस्थियों को किसी कारण वश आन्तरिक हानि पहुँचती रहने एवं नये अस्थि-ऊतक कम बनने से यह समस्या आती है।
कोई अस्थि टूटने व प्रयोगशालेय जाँच करवाये बिना इसका पता पड़ना मुश्किल है। लालेवल्स के एक्स-रेज़ से जाँच की जाती है। स्ट्रान्षियम अस्थिछिद्रण के उपचार में सहायक खनिज है। दूध, गेहूँ के जवारों व कंदमूलों में यह अधिक पाया जाता है। सोयाबीन के सेवन से आइसोफ़्लेवान्स की मात्रा भी बढ़ायें।
3. पॅजेट्स रोग – अस्थियों के इस विकार में अस्थि-नवीकरण प्रक्रिया अर्थात् रिमाडलिंग इतनी तेजी से होती है कि अस्थि-कुनिर्माण (बोन-डिफ़ार्मिटी) की आशंका रहती है जिससे कि मेरु (स्पाइन), श्रोणिका (पेल्विस), करोटि (खोपड़ी) की एवं जाँघ की अथवा पैरों के निचले भागों की लम्बी अस्थ्यिों में कोमलता अथवा वृद्धि सम्भव है। यह प्रायः 55 वर्षायु से अधिक के लोगों को होता है परन्तु आनुवांशिक भी हो सकता है।
4. अस्थि-संक्रमण (आस्टियोमेलाइटिस) – वैसे तो अस्थि-ऊतकों में संक्रमण दुर्लभ है परन्तु यह स्थिति गम्भीर होती है। किसी शल्यचिकित्सा के बाद इसकी आशंका हो सकती है तथा यह संक्रमण शरीर के अन्य भागों से भी अस्थि में आ सकता है। दर्द, सूजन अथवा लालिमा इस संक्रमण के लक्षण हो सकते हैं तथा उपचार में अस्थिरोगचिकित्सक प्रतिजैविकों का सेवन कराता है। अधिक गम्भीरता में संक्रमित अस्थि का भाग शल्यक्रिया द्वारा हटाये जाने की आवश्यक हो सकती है।
5. अस्थिक्षय (ओस्टियोनेक्रोसिस – इसे एवेस्क्युलर नेक्रोसिस- ऐवीएन, एसेप्टिक नेक्रोसिस अथवा इष्चॅमिक बोन नेक्रोसिस भी कहा जाता है जिसमें कि मुख्यतः रक्त के अभाव में अस्थि-कोशिकाओ व अस्थि-ऊतकों की मृत्यु हो रही होती है अथवा उनका क्षरण हो रहा होता है।
यदि यह स्थिति संधि (जायण्ट) के पास पनप जाये तो संधि-सतह ढह सकती है एवं बेगढ़ संधि-सतह के कारण अलग से आथ्र्राइटिस की स्थिति आ सकती है। अस्थिक्षय कई कारणों से सम्भव है, जैसे कि किसी अभिघात (ट्रामा) से अस्थि की ओर रक्तआपूर्ति क्षीण हो जाना; स्टेराड ड्रग्स का सेवन इत्यादि।
6. अस्थि-अर्बुद (बोन-ट्यूमर्स) – इस स्थिति में अस्थि के भीतर कोशिकाओं की अनियन्त्रित बढ़त होती है। ये ट्यूमर्स कैन्सरस (मैलिग्नेण्ट) व ग़ैर-कैन्सरस(बिनाइन) हो सकते हैं।
7. आस्टियोआथ्र्राइटिस – यह एक क्रानिक डिजनरेटिव जायण्ट डिसीस है जो कि आथ्र्राइटिस का अधिक देखा जाने वाला प्रकार है। इसमें अस्थियों के बीच गद्दे का कार्य करने वाली उपास्थि (कार्टिलेज) टूट जाती है एवं अस्थियाँ आपस में रगड़ने लगती हैं जिससे दर्द, सूजन व कठोरता आने लगती है।
8. र्ह्यिूमेटायड आथ्र्राइटिस – इस क्रानिक, इम्युनोडेफ़िषियन्सी विकार में प्रतिरक्षा-तन्त्र शरीर के ही ऊतकों पर आक्रमण करने लगता है, जैसे कि हाथ-पैरों की संधियों पर। आस्टियोआथ्र्राइटिस में तो टूट-फूट क्षति अधिक होती है परन्तु र्ह्यिूमेटायड आथ्र्राइटिस में संधियों के आस्तर (लाइनिंग) पर प्रभाव पड़ता है जिससे दर्दयुक्त सूजन आती है। अस्थि-अपरदन व संधि-कुनिर्माण से भी यह स्थिति आ सकती है।
9. स्कोलियोसिस – मेरु ( स्पाइन) की अस्थियाँ असामान्य रूप से बायें अथवा दायें वक्रित हो जाने अथवा मुड़ जाने से ऐसा होता है जो कि प्रायः किशोरावस्था के आरम्भ से ठीक पहले देखा जाता है। कुछ मामलों में यह मेरु-कुनिर्माण की स्थिति समय के साथ बिगड़ती पायी जाती है। कारण तो ज्ञात नहीं परन्तु आनुवांशिक की आशंका जतायी जा रही है।
10. कम अस्थि-घनत्व – लो बोन-डेन्सिटी को ओस्टियोपेनिया भी कहा जाता है। इससे अस्थिछिद्रण की स्थिति पनप सकती है जिसमें अस्थिभंग (फ्ऱेक्चर), दर्द व कूबड़ जैसा झुका-सा शरीर सम्भव है।
11. गाउट – इसमें यूरिक अम्ल क्रिस्टल्स संधियों में अत्यधिक जमा रहते हैं, असामान्य सूजन, दर्द व लालिमा सम्भव। पैरों के अँगूठे स्पष्ट रूप से सूजे हुए लग सकते हैं, टखना/गुल्फ (ऐड़ी को पैर के निचले भाग से जोड़ने वाली संधि) व घुटनों में भी समस्या सम्भव।
वृक्क यदि यूरिक अम्ल को ठीक से न सँभाल पा रहे हों अथवा शरीर में यूरिक अम्ल का अवशोषण बहुत अधिक हो रहा हो तो गाउट हो जाता है। शरीर में यूरिक अम्ल के निर्माण व आवशोषण को कम से कम रखने के लिये माँस-मदिरा से सर्वथा दूरी बरतें, कृत्रिम शक्कर कम करें, जई (ओट) व जौ (बार्ले) का सेवन बढ़ायें।
अस्थि से जुडी जाँचें –
*. अस्थि-खनिज घनत्व (बोन-मैरो डेन्सिटी) स्क्रीनिंग/समग्र अस्थि स्केन – इसमें अस्थियों में कैल्शियम अंश को परखा जाता है एवं यह पता लगाने का प्रयास किया जाता है कि व्यक्ति की अस्थियाँ कितनी मजबूत हैं।
*. अल्केलाइन फ़ास्फ़ेटेज़ परीक्षण
*. कैल्शियम रक्त-परीक्षण
*. बोन-मार्कर्स
*. बोन-बायोप्सी
*. विभिन्न बोन-एक्सरेज़ व रेडियोग्रॅफ़ी
अस्थि के उपचार व सावधानियाँ –
विधिवत प्रयोगशालेय जाँचों एवं अस्थिरोगचिकित्सक से चिकित्सा कराने के साथ निम्नांकित उपाय भी अस्थियों के स्वास्थ्य के लिये अपनाये जा सकते हैं..
*. शारीरिक सक्रियता प्राकृतिक रूप से बढ़ायें – सभी व्यक्ति पैदल चलें, बर्तन-कपड़े धोयें, सायकल चलायें, रस्सी कूदें। अधिक वजन की समस्या हो तो क्रियाशीलताएँ और अधिक बढ़ानी होंगी।
*. तम्बाकू सेवन मत करें।
*. धूम्रपान न करें।
*. मद्यपान बन्द करें।
*. फ़ास्फ़ेटयुक्त प्रिज़र्वेटिव व ड्रिंक्स सहित चाइनीज, डिब्बाबंद व जंक फ़ूड से दूर रहें।
*. हार्मोनल उपचार – यदि थायराइड हार्मोन की अधिकता से अस्थि-हानि हो रही हो अथवा रजोनिवृत्ति के बाद स्त्रियों में अस्थि-समस्या आ रही हो तो सम्बन्धित विशेषज्ञ से मिलकर उपचार करायें।
*. कार्टिकोस्टेराइड का सेवन न करें – सूजन व एलर्जिक रोग के उपचार में स्टेरायडयुक्त दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है जिनसे अस्थियों में ख़राबी आने की आशंका रहती है।
*. विटामिन-के अस्थिस्वास्थ्य के लिये आवश्यक है जिसके लिये शलगम व पालक का सेवन बढ़ायें।
*. क्रान्’स अथवा सेलियक अथवा कुषिंग जैसे रोगों से शरीर में कैल्शियम का अवशोषण करने की क्षमता कम हो सकती है। सम्बन्धित जाँचें व चिकित्साएँ कराने के साथ कैल्शियम समृद्ध सोयाबीन व दुग्ध-उत्पादों की मात्रा बढ़ायें। शरीर में कैल्शियम की मात्रा पहले से ही अधिक हो तो कैल्शियम समृद्ध पदार्थों का सेवन कम करें।
*. मैग्नीशियम – शरीर में कैल्शियम के बाद मैग्नीशियम दूसरा सर्वाधिक पाया जाने वाला खनिज कहलाता है। अस्थि-निर्माण में व शरीर में कैल्शियम के अवशोषण के लिये यह महत्त्वपूर्ण है। मैग्नीशियम की आपूर्ति के लिये गहरे हरे रंग की भाजियाँ-पत्तियाँ, साबुत अनाज एवं फलियों की मात्राएँ बढ़ायें।
*. बारान – यह सर्वाधिक अस्थियों व डेण्टल इनेमल में पाया जाता है। अस्थि-छिद्रण में एवं विटामिन-डी, मैग्नीशियम व पोटेशियम की कमी की स्थिति में बारान काफी आवश्यक हो जाता है। सोयाबीन सहित ताज़े फल-सब्जियों में बारान होता है।
कृत्रिम रूप से कोई भी सप्लिमेण्ट न लें, जैसे कि सप्लिमेण्ट के रूप में बारान लेना विशेष रूप से ब्रेस्ट-कैन्सर की दृष्टि से हानिप्रद हो सकता है। रक्तजाँचों द्वारा शरीर के विविध खनिजों, विटामिन्स इत्यादि की न्यूनता-अधिकता को परखकर मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार तैयारी करनी महत्त्वपूर्ण है।
तो ये थी हमारी पोस्ट अस्थि (हड्डी ) रोग के कारण व उपचार, Bone Disease Causes And Treatment In Hindi.haddi ke rogo ka upchar . आशा करते हैं की आपको पोस्ट पसंद आई होगी और bones problem treatment in hindi की पूरी जानकारी आपको मिल गयी होगी. Thanks For Giving Your Valuable Time.
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